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ये तुम हो...?


अब काव्य उमड़ता-घुमड़ता नहीं -- ललित शर्मा

एक अरसे से शिल्पकार ने कुछ काव्य रचा नहीं, पहले रोज एक पोस्ट आ ही जाती थी नित नेम से। शायद काव्य का सोता सूख गया। अब काव्य उमड़ता-घुमड़ता नहीं। पता नहीं क्यो अनायास हीं एक जीता जागता ब्लॉग मृतप्राय हो गया, जबकि यह मेरा पहला ब्लॉग है। शिल्पकार ब्लॉग जगत की गलियों भटकता रहा। कहते हैं न खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है ऐसा ही कुछ हुआ है। फ़ेसबुक की चार लाईनों ने एक गजल तैयार करने की लालसा जगा दी। बहुत सारे ब्लॉगर साथी फ़ेसबुक पर लगे हुए हैं, धड़ाधड़ महाराज की तरह वहीं पोस्ट हो रहा है। एक गजल नुमा प्रस्तुत कर रहा हूँ, ईटर-मीटर का तो पता नहीं। गुणी जन कृपा करेगें, उम्मीद है कि हफ़्ते में एकाध बार तो इस ब्लॉग पर काव्यमय पोस्ट लग जाएगी।




जीते जी कुछ करो तो बात बने।
कोई महफ़िल सजाओ तो बात बने।।

तुम्हारी महफ़िल में आना चाहते हैं।
कोई नगमा सुनाओ तो बात बने॥

कतरा समंदर भी असर रखता है।
प्यास मन की बुझाओ तो बात बने॥

गर्म हवाओं से झुलसा है मन मेरा।
हवा प्यार की बहाओ तो बात बने।।

मचलता रहा यह दिल तुम्हारे लिए।
आकर सीने से लगाओ तो बात बने॥

तनहा खड़ा जिन्दगी के चौराहे पर ।
बस साथ मेरा निभाओ तो बात बने॥


आपका शिल्पकार

शकुन्तला तरार की एक कविता "जंगली सौंदर्य"

शकुन्तला तरार  की एक कविता "जंगली सौंदर्य"

जंगली सौंदर्य

बैलाडिला लौह अयस्क प्रोजेक्ट
ऊँचा नाम ऊँचा काम
नये-नये लोग
अचानक बस्तर आना
जंगली सौंदर्य
उफ!
परिणति
अनब्याही मां
नाबालिग मां
घरेलू काम के एवज में
लुटी हुई अस्मत
दैहिक शोषण की शिकार बालाएं
चंद टुकड़े रुपयों के
लुटी हुई अस्मत के बदले, ठगी हुई मानसिकता
पुनः परिणति
दैहिक शोषकों से जबरिया ब्याह
अधिकारियों द्वारा स्थानांतरण, तलाक  अथवा पलायन
क्या बचा?
गोद में बच्चे और तिरस्कार, उपेक्षा
परदेशियों द्वारा ठगी का शिकार
और
आज भी जारी है
बदस्तूर
अधिकारियों के
व्यापारियों के
कुत्सित भावनाओं की
कुत्सित निगाहों की
घृणित मानसिकता की
और वही भोलापन
अल्हड़पन
और
निर्द्वन्द्व हंसी ।

खोया बचपन

कंचे,लट्टू,गुल्ली-डंडा,पुराना बक्सा खोल रहा हूँ।
खोया बचपन ढूंढ रहा हूँ,मैं बचपन ढूंढ रहा हूँ॥

राजा-रानी, परियों की, कहानी खूब सुनाती थी।
खोयी ममता ढूंढ रहा हूँ,मैं बचपन ढूंढ रहा हूँ॥

लड्डू-पेड़े,खाई-खजाना,मुझको खूब खिलाती थी।
तेरे आंचल की छाया में, मैं बचपन ढूंढ रहा हूँ।।

करता जब धमा-चौकड़ी,मार से तुम बचाती थी।
तुम्हारी यादों में घर कर,मैं बचपन ढूंढ रहा हूँ।।

कभी न करुंगा उधम, कान पकड़ बोल रहा हूँ।
खोया बचपन ढूंढ रहा हूँ, मैं बचपन ढूंढ रहा हूँ॥


शिल्पकार

कठपुतली

कठपुतली नाचती है
उसके हर ठुमके पर
तालियाँ बजती हजार
होठो पर छाती है स्मित 
थिरकते कदमों से 
करती है अभिवादन
खेल ख़त्म होते ही
नट खोलता है धागे
अपने पोरों से 
बेजान कठपुतलियां
फिर टंग जाती हैं
बरसों पुरानी खूंटी से
बार बार छली जाती हैं
मालूम होते हुए भी 
उनके प्राण किसी 
और के हाथों में हैं
जो धागे बांध नाचता है
     
आपका 
शिल्पकार  

बसंत तू कब आया ?

रात के तीन बजकर 29 मिनट हुए हैं, चैट पर टन्न की आवाज आती है। बसंत पंचमी की शुभकामनाएं लिखा दिखाई देता है। ध्यान से देखता हूँ तो अरुण राय जी हैं। जिनकी कविताएं मुझे बहुत पसंद आती है। समय-बेसमय उनके ब्लॉग पर जाता हूँ और बिना आहट के चला आता हूँ। मुझे कविता लिखे लगभग एक बरस होने को आ गया। कहीं से एक झटका लगा और कविता का प्रवाह रुक गया। बरस भर में 10 पंक्तियाँ भी कविता, गीत, गजल कह न सका। लेकिन आज कवि को देख कर कवि मन जाग उठा। एक कविता उतर  आई। प्रस्तुत है आपके लिए, शायद आपको पसंद आ जाए।

पता ही न चला
बसंत तू कब आया
लगा था उधेड़ बुन में
एक आहट तो दी होती
मैं भी संवर जाता
मदनोत्सव के लिए
तेरा आना सहज है
लेकिन जाना पीड़ादायक
कामदेव रति के बिछोह के बाद
तू चला जाता है अपनी राह
अधुरा मदनोत्सव छोड़कर
पलाश की लालिमा 
बाट जोहती है
बरस भर
तेरे आने की
कामदेव भस्म होकर भी
जीवन पा गया
लेकिन मैं जलता रहता हूँ
सुलगता रहता हूँ 
सिगड़ी सा
पतझड़ की गर्म हवाओं में
तेरी प्रतीक्षा करते हुए 

आपका 
शिल्पकार

ओ महाकाल -- अम्बर का आशीष से ----- ललित शर्मा

संत पवन दीवान जी ने अपनी एक कविता " ओ महाकाल " अपने काव्य संकलन "अम्बर का आशीष" के विमोचन के अवसर पर सुनाई थी। उन्होने कहा कि आज राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता है, छोटी-छोटी एकता मिलकर बड़ी एकता बनती है। इस कविता का पॉडकास्ट सुनिए।

ओ महाकाल



ओ महाकाल तुम कब दोगे
जीने के लिले हमें दो क्षण
हम किस पृथ्वी पर बैठे हैं
पांवों में क्यों भर रहा गगन

उड़ने वाले चेहरे किसके
सूने में लटके हाथ
यह अंतहीन पथ किसका है
अंकित हैं छोड़े हुए साथ

आँखें ही आँखें हैं उपर
केवल आँखे ही आँखे हैं
कुछ मांस अस्थियाँ नहीं शेष
उतराती टूटी पांखे हैं

ये निष्फ़ल खड़ी याचनाएं
दरवाजों पर क्यों टूट रही
कांचों ने पत्थर तोड़ दिए
खिड़कियाँ हवाएं लूट रही है

चर मर करती कुर्सियाँ हाय
यह देश बैठता जाता है
जितना हर धागे को खोलो
उतना ही ऐंठता जाता है

कुछ राष्ट्र देवता को समेट कर
हर पत्थर में समा गए
अपने वंशों की पुस्तक पर
संस्करण दूसरा जमा गए

रास्ते पर पड़ा एक चेहरा
कितना निर्जन कितना उदास
वह किसका है,कुछ पता नहीं
परिचय को कोई नहीं पास

उसकी नहीं जरुरत कोई
इस पगलाई हुई भीड़ में
पत्नी बच्चे लटक रहे हैं
मंहगाई के किसी चीड़ में

किन राहों में चप्पलें फ़टी
जुड़ते-जुड़ते गल गए हाथ
आँखे हैं पर पुतलियाँ नहीं
खाई-खाई बंट गया ग्राम

वह देह नहीं है प्राण नहीं
केवल विनाश का सड़ा शेष
है कहाँ मेरे तन के नक्शे
कैसा है अपना जन्म देश

जिन्दगी जिसे तुम कहते हो
जिसको तुम कहते रहे प्यार
उस चेहरे का हो सका नहीं
कोई दर्पण एक बार

अब तक पड़ा हुआ वह चेहरा
हर आकृति को कराहता है
लेकिन उसकी जीभ नहीं है
कहता नहीं क्या चाहता है

लेकिन मुझे पता है सब कुछ
वह हम सबको श्राप रहा है
कितना बड़ा देश है उसका
वह पलकों से नाप रहा है

पड़ा रह गया वहीं चेहरा
तो चौराहा जल जाएगा
उसके रिसते हुए दर्द से
हृदय देश का गल जाएगा

रुक जाओ कुछ और देख लो
शायद कोई उसे उठा ले
विस्फ़ोटों का सुत्र काट कर
सब चेहरों का नाश बचा ले

पवन दीवान
ग्राम किरवई (राजिम)
जिला रायपुर छत्तीसगढ

शोषण की रोशनी--अम्बर का आशीष विमोचित ---- ललित शर्मा

हिन्दी और  छत्तीसगढ़ी  कविताओं के माध्यम से जन-चेतना की अलख जगाने वाले लोकप्रिय  संत  कवि पवन दीवान  (स्वामी अमृतानंद सरस्वती ) से जगत में सभी परिचित हैं। इसलिए मुझे उनके विषय में परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। दीवान जी  का "मेरा हर स्वर इसका पूजन" नामक काव्य संकलन दो दशक पहले आया था। सौभाग्य से उसकी एक प्रति मेरे संग्रह में भी है। स्वराज करुण जी के द्वारा जानकारी मिली कि उनके दूसरे काव्य संकलन का विमोचन 1 जनवरी 2011 को जन्मदिन के अवसर पर है। इसके पश्चात छत्तीसगढी प्रख्यात गीतकार  एवं लोकसुर प्रकाशन के मुखिया भाई लक्ष्मण मस्तुरिया ने फ़ोन पर आमंत्रित किया। स्वराज्य करुण जी के साथ विमोचन समारो्ह में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला, गरिमामय वातावरण में "अम्बर का आशीष" का विमोचन माननीय कृष्णा रंजन जी के करकमलों से हुआ। कार्यक्रम की विस्तृत रिपोर्ट के लिए यहाँ पर जाएं। दीवान जी के नवीन कविता संग्रह "अम्बर का आशीष" से एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ।  

शोषण की रोशनी

कब तलक कठिनाइयाँ झेलेगा आदमी
कब तलक तनहाइयाँ झेलेगा आदमी
जिन्दगी का अब कोई मतलब न रहा
कुछ दिनों में खून से खेलेगा आदमी

महलों के गले काट के कुटियों को पिन्हा दो
शोषण की रोशनी को अंधेरे में मिला दो
जिसने भी नोच-नोच के खाया है देश को
उसका कलेजा चीर के कुत्तों को खिला दो

बेटी है शहीदों की वो शोलों में खिलेगी
इस देश को आजादी किस्तों में मिलेगी
मजदूर  को, गरीब को रोटी न मिलेगी
तुम ऐसे कटोगे कि बोटी न मिलेगी

आदमी होकर भी जीते नहीं हो क्या
खून को उबाल कर पीते नहीं हो क्या
फ़ट रही जो रोज-रोज दर्द की कमीज
बेटी की गर्म सांस से सीते नहीं हो क्या

कितनी तबाह हो चुकीं मजबूर बेटियाँ
इज्जत खरीदती है जेवरों की पेटियाँ
सत्ता की कुर्सियाँ तो लाशों पे खड़ी है
पेटों को तुमने कर दिया वोटों की पेटियाँ

बोलो जरा किसने इन्हे मजबूर बनाया
आदमी से आदमी को दूर बनाया
तुम्हीं आदमखोर थे इतिहास के घर में
एक गेहूँ जख्म को तंदूर बनाया

पवन दीवान
ग्राम किरवई (राजीम)
जिला रायपुर - छत्तीसगढ

 

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