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गुगल बाबा

इंडी ब्लागर

 

तभी समझना यार आ गयी है मस्तानी होली ---होली पर विशेष धमाका------ललित शर्मा

आज होली का त्यौहार है..........होलिका की दहन की तैयारी हो रही है..........बस आज रात नगाड़े कुछ जोर पर रहेंगे फाग अपनी चरम सीमा पर .................और कल होली के रंग गुलाल की बौछार होने वाली है आज ट्रैफिक भी जाम रहेगा.....लोग जल्द से जल्द अपने घर पहुँचने की कोशिश में रहेंगे किसी हादसे से बचने के लिए आप भी सुरक्षित होली मनाएं....सभी भाइयों और बहनों को होली की हार्दिक शुभ कामनाएं,  मैंने होली पर एक कविता लिखी थी और सौभाग्य से आज मेरे साथ कवि योगेन्द्र मौदगिल जी भी हैं उन्होंने इसे संवारा है............अब विशेषतौर पर आपके लिए प्रस्तुत है... ...... आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनायें.....

जब टेसू जब पलास के रंगों की सजे रंगोली
जब चौपाल में बजे नगाड़े और हँसे हमजोली
जब कोयलिया ने भी अपनी तान सुरीली खोली
तभी समझना यार आ गयी है मस्तानी होली

आँख आँख जब सजे इशारे और बुलावा आये
आँगन आंगन बिखर चांदनी अपना रंग दिखाए
झर झर झर झर मधु रस टपके और अमृत घोली
तभी समझना यार आ गयी है मस्तानी होली 

जब खिड़की से वह लटकाए ऊपर चढ़ने डोरी
तुलसीदास की रत्ना जैसी लगती है तब गोरी 
देख खुला दरवाजा चोरों की भी नियत डोली
तभी समझना यार आ गयी है मस्तानी होली

जब ऋतुराज ने रंगों वाली बड़ी पिटारी खोली
भांग चढ़ा कर जब वो बोले मीठी मीठी बोली 
सारा दिन मदमस्त रहे जब सूझे नई ठिठोली
तभी समझना यार आ गयी है मस्तानी होली

आपका 
शिल्पकार     

रंग रंगीले रसिया के छल से भीगी नव-चोली -------------हो्ली है------ललित शर्मा

होली के अवसर प्रकाशन के लिए एक गीत लिखा था, जब ब्लाग जगत पे फगुनाहट की आहट हुयी तो उसे भेज दिया सम्मानित कराने के लिए, ...........चलो लगे हाथ बहती गंगा में स्नान कर लिया जाए....सम्मान भी हुआ और फगुनाहट पर हमारा गीत दुसरे नंबर पर था.......उपविजेता घोषित किया गया कल धूमधाम से.... लेकिन मिठाई से वंचित रह गये.....शायद मतदाताओं को पता था गीतकार मधुमेह से ग्रसित है और मिठाई खाना इनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है........ इसलिए इतने ही मत मिले की ना मरे ना मोटाय............किसी तरह मधुमेह से बचाय.........जिन्होंने इसे सराहा और मुझे अपना आशीर्वाद दिया.......मैं उनका हार्दिक आभारी हूँ.......मंचीय कवि नहीं हूँ इस लिए मंच के स्तर की नहीं लिख पाता.....लेकिन २७ वर्षों से शब्दों का समीकरण बैठा रहा हूँ........जोड़ तोड़ करके कुछ गढ़ देता हूँ और उसे अब ब्लाग पर लगा कर स्वांत: सुखाय की भावना से आत्म संतुष्टि पा लेता हूं......इदं नमम् के भाव से अर्पित कर देता हुँ..........आज कल छंद बद्ध गीत नहीं लिखे जा रहे अवधिया जी का कहना था.....तो एक प्रयास किया था हमने.......छंद का ज्ञान तो अब भूल चुके हैं........लेकिन अब पुन: याद करके मात्राएँ.....लिखना चाहेंगे....... प्रतियोगिता में शामिल गीत को प्रस्तुत कर रहा हूं...........आशीर्वाद चाहूँगा..........बुरा ना मानो होली है.

सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
खेल रही है होली गोरी खेल रही है होली..
 

कंचनकाया कनक-कामिनी, वह गाँव की छोरी
चन्द्रमुखी चंदा चकोर चंचल अल्हड-सी गोरी.
ठुमक ठुमक कर ठिठक-ठिठक कर करती मस्त  ठिठोली.
 

सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
खेल रही है होली गोरी खेल रही है होली..
 
छन-छन, छनक-छनन छन पायल मृदुल बजाती
सन-सन सनक सनन सन यौवन-घट को भी छलकाती
रंग रंगीले रसिया के छल से भीगी नव-चोली
 
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
खेल रही है होली गोरी खेल रही है होली..

पीताम्बर ने प्रीत-पय की भर करके  पिचकारी
मद-मदन मतंग मीत के तन पर ऐसी मारी
उर उमंग उतंग क्षितिज पर लग गई जैसे गोली
 

सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
खेल रही है होली गोरी खेल रही है होली.. 

गज गामिनी संग गजरा के गुंजित सारा गाँव
डगर-डगर पर डग-मग डग-मग करते उसके पांव
सहज- सरस सुर के संग सजना खाये भंग की गोली
 

सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
खेल रही है होली गोरी खेल रही है होली..

आपका
शिल्पकार
(चित्र गुगल से साभार

चंदू घर के अन्दर ही नगाड़े पीटने लग गया है.! होली है-भाई होली है "ललित शर्मा "

रसों होली है, नंगाड़ों की मधुर ताल वातावरण कों होली मय कर रही है. कल शाम कों हमारे घर में नगाड़ों की आवाज सुनाई दी. तबियत नासाज होने के कारण मैं सोया हुआ था. देखा तो चंदू घर के अन्दर ही नगाड़े पीटने लग गया है. भाई होली है......बच्चों बूढों सभी के मन में होली की उमंग रहती है. चंदू की बस एक ही जिद रहती है उसे नगाड़े चाहिए. दो चार दिन बजाकर फिर उसका विसर्जन कर डालता है. मतलब बजा-बजा कर फोड़ डालता है और होली पर नए नगाड़ों कों खरीदने का इंतजार करता है. आज सुबह ही उठ कर बिना नहाये धोये नगाड़े बजाने  में लगा हुआ है. देखिये आप भी.......मूड में होता है तो गाता भी है. लेकिन आज नहीं गा रहा था सिर्फ नगाड़े बजाने की ही धुन में लगा हुया है...........इसके साथ एक फाग भी प्रस्तुत है.......जो परम्पराओं के  खजाने से निकाला गया है.......लीजिये आनंद और मनाईये होली..


धीरे बहो नदिया धीरे बहो, धीरे बहो
धीरे बहो नदिया धीरे बहो
राधा जी उतरैं पार
नदिया धीरे बहो


काहेन के तोरे नाव-नउलिया काहेन के पतवार
कौन है तोरे नाव खिवैया कौने उतरै पार
नदिया धीरे बहो


अगर-चंदन के नाव-नउलिया सोनेन के पतवार
कृष्णचन्द्र हैं नाव खिवैया राधा उतरै पार
नदिया धीरे बहो

आपका 
शिल्पकार

मोहन खेलै होरी------होली का रंग-चढ़ गई भंग..........ललित शर्मा ........

फागुन का मौसम है और होली अब कदम बढाते हुए दरवाजे तक पहुँच गई है. हमारे ग्रामांचल में कृष्ण और राधा के होली के फाग गए जाते हैं. गोपियों संग खेली कृष्ण की होली मशहूर है. होली के इर्द-गिर्द बैठ कर जब नगाड़ों की धुन के साथ ये फाग गाये जाते हैं वातावरण होलीमय हो जाता है. ऐसा ही एक गीत परंपरा से हमारे यहाँ गाया जाता है. आप भी आनंद लीजिये..........

मोहन खेलै होरी, मोहन खेलै होरी,
चलो वृषभान के दुलारी

काखर भिंज गै लहँगा,
काखर सारी, काखर सारी
काखर भिंज गै चुनरिया
कौन रंग मारी, कौन रंग मारी
चलो वृषभान के दुलारी

राधा के भिंज गै लहँगा,
ललिता के सारी, ललिता के सारी
चन्द्रावली के चुनरिया
मोहन रंग मारी, मोहन रंग मारी
चलो वृषभान के दुलारी

प्रस्तुतकर्ता 
शिल्पकार, 

फागुन में जरा सा तुम महक जाओ !! (ललित शर्मा)

फागुनी मौसम हो गया है....प्रकृति ने अपनी मनोरम छटा बिखेर दी है....... कल शाम को खेतों की तरफ गया था तो देखा कि वातावरण में भीनी-भीनी खुशबु है जो मद मस्त कर दे रही है....... डूबते हुए सूरज की छटा निराली है. ऐसे उनका याद आ जाना गजब ढा गया........कभी इन खेतों में बेर.....अरहर.......तिवरा-लाखड़ी के लालच में आया करते थे......अब सिर्फ यादें ही शेष है........सूरज डूबता जा रहा है.....लालिमा बढ़ते जा रही है.......और उनकी याद गहराते जा रही है........अनायास ही कह उठता हूँ..............नया  मौसम  आया  है  जरा  सा तुम संवर जाओ(इसके साथ ही डूबते हुए सूरज के कुछ चित्र मैंने खींचे थे उनका भी आनंद लीजिये) 

फागुन में जरा सा  तुम  महक  जाओ
नया  मौसम  आया  है  जरा  सा तुम संवर जाओ
जरा सा हम बदल जाएँ, जरा सा तुम बदल जाओ

जमी  ने भी ओढ़  ली  है  एक  नयी  चुनर  वासंती 
गुजारिश है के फागुन में जरा सा  तुम  महक  जाओ

नए  चंदा- सितारों से सजाओ मांग तुम अपनी
परिंदों  के तरन्नुम में जरा सा तुम चहक जाओ

तुम्हारे  पैर  की  पायल  नया  एक  राग  गाती  है
जरा सा हम मचल जाएँ जरा सा तुम थिरक जाओ

"ललित" के मय के प्याले में तुम भी डूब लो साकी
जरा सा हम बहक जाएँ जरा सा तुम बहक जाओ 
 
पलाश के पेड़ों के पीछे छुपने की कोशिश करता सुरज

 
आखिर क्षितिज से मिलन होना ही था


आपका 
शिल्पकार,

काहे को सताय,बाली उमर लरकैया--होली की तरंग (ललित शर्मा)

स अब फ़ाग-राग और होली का धमाल-व्यंग्य के तीर और स्नेह का गुलाल, ब्लाग जगत मे भी उड़ना शुरु हो गया है। होली का रंग दिखने लगा हैं भंग के साथ---यही होली की रीत है--यही मानुस की प्रीत है----होली के फ़ाग गीतों मे अपुर्व श्रृंगार भरा है। प्रेम उमड़ने लगता है----भावनाओं का सागर हिलोरें लेने लगता हैं। क्या कहने इस त्यौहार के ! बात आनंद लेने की है तो एक मस्ती भरा परम्परागत रुप से गाया जाने वाला फ़ाग प्रस्तुत कर रहा हुँ आप अवश्य आनंद ले और होली के रंग गुलाल का कोष अभी से भरपुर रखें क्योंकि यही आनंद वर्ष भर के लिए उर्जा देता है---किसी भी तरह--हर परिस्थिति मे खुश रहे----बस यही कामना है 

काहे को सताय, काहे को सताय, बाली उमर लरकैया

बारा बरस के उमरिया
राधा-ललिता आय, राधा-ललिता आय
चन्द्रावली और विशाखा
जल भरने को जाय, जल भरने को जाय
बाली उमर लरकैया

काखर फोरे गगरिया
काखर चूमे गाल, काखर चूमे गाल
काखर फाड़े चुनरिया
यशोदा जी के लाल, यशोदा जी के लाल
बाली उमर लरकैया

राधा के फोरे गगरिया
ललिता के चूमे गाल, ललिता के चूमे गाल
चन्द्रावली के चुनरिया
यशोदा जी के लाल, यशोदा जी के लाल
बाली उमर लरकैया

प्रस्तुतकर्ता
शिल्पकार

हो्ली आई रे! होली आई रे! आईए होली का स्वागत करें!!!

मारे ३६ गढ़ में होली का माहौल परम्परागत रूप से बसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. होलीका दहन स्थल पर पूजा करके अंडा(एरंड) का पेड गड़ाया जाता है प्रति दिन उसके बाद शाम होते ही नवजवानों की टोली नंगाड़ों के साथ फाग गीत गाते है जिसकी लय और तन इतनी उत्तेजक होती है कि कदम अपने ही आप नाचने को मजबूर हो जाते हैं. अगर इसके साथ भंग का रंग हो तो क्या कहने. फिर तो सोने में सुहागा हो जाता है. हम भी अपने नंगाड़ों के साथ होली का मजा लेने में कभी नहीं चूकते थे. छोटे गांवों में तो यह मनोंरजन अभी तक जारी है. लेकिन बड़े गांवों में अब रस्म अदायगी मात्र रह गई है. 
एक से बढ़ कर एक फाग अन्दर मन के तक हिलोर मारते हैं. लेकिन एक परम्परा है जिसका निर्वहन आज तक होता है. वह है फाग गायन से पूर्व गणपति वंदना. इस मंगल कार्य के लिए गणपति को अवश्य मनाया जाता है उसे भूलते नहीं हैं. अब ब्लाग जगत  में होली कि बयार बह रही है. हम भी लेकर आये हैं परम्परा से गाए जाने वाली गणपति वंदना को. इसे किसने लिखा है? इसका तो मुझे पता नहीं है. क्योंकि यह वंदना श्रुति परंपरा से चली आई है मुझ तक। आप भी इसका आनंद ले और होली पर्व का आरम्भ समझें.........................

गणपति को मनाय प्रथम चरण गणपति को मनाय
गणपति को मनाय, गणपति को मनाय प्रथम चरण गणपति को मनाय
गणपति को मनाय प्रथम चरण गणपति को मनाय

एक दंत गज मुख लम्बोदर
सेन्दुर तिलक बरनि ना जाय
गणपति को मनाय प्रथम चरण गणपति को मनाय

माँगत हौं बर दुइ कर जोरे
देहु सिद्धि कछु बुधि अधिकाय
गणपति को मनाय प्रथम चरण गणपति को मनाय

एक अन्य गणपति वंदना है...........................

गणपति को मनाव प्रथम चरण गणपति को मनाव
गणपति को मनाय, गणपति को मनाव प्रथम चरण गणपति को मनाव
गणपति को मनाव प्रथम चरण गणपति को मनाव

काखर पूत भये गणपति
काखर हनुमान, काखर हनुमान
काखर पूत भये भैरो
काखर भये राम, काखर भये राम
गणपति को मनाव प्रथम चरण गणपति को मनाव

गौरी के पूत भये गणपति
अंजनि के हनुमान, अंजनि के हनुमान
काली के पूत भये भैरो
कौशल्या के राम, कौशल्या के भये राम
गणपति को मनाव प्रथम चरण गणपति को मनाव

काखर=किसके
मनाव= मनाना 

आपका 
शिल्पकार

गज़ब कहर बरपा है महुए के मद का भाई........ जोगीरा सर र र र र र र हो..... जोगी जी (ललित शर्मा)

फ़ागुन का मौसम है बस अब मन के रंग-अबीर-गुलाल उड़ रहे हैं, दिलों पर भी मस्ती छाई और हम भी मस्ती मे हैं,  होली आने को जो है, अब उड़े रे रंग गुलाल। अभी से माहौल बन रहा हैं। प्रकृति ने भी अपने समस्त रंगो को धरा पर बिखेर दिया है। सभी झूमे जा रहे हैं, हम भी क्यों पीछे रहें? प्रकृति के संग-संग चलते हैं जैसे पतंग के साथ डोर अपने आप उड़ी जाती है, गिरिजेश भाई ने तो होली का वातावरण गरम करने के बाद ठंडा कर दिया है लेकिन चलिए अब फ़ि्र फ़ागुन की तरफ़ चलते है और आनंद लेते हैं अपनी माटी के जुड़ कर एक गीत का, आपके समक्ष प्रस्तुत है-आशीर्वाद चाहुँगा...........


सरसों  ने  ली अंगडाई गेंहूँ की बाली डोली
सरजू ने ऑंखें खोली महुए ने खुशबु घोली

अमिया पर यौवन छाया जुवार भी गदराया
सदा सुहागन के संग गेंदा भी इतराया
जब रजनी ने फैलाई झोली 
गेंहूँ की बाली डोली

रात-रानी के संग गुलमोहर भी ललियाया
देख महुए की तरुणाई पलास भी हरषाया
जब कोयल ने तान खोली
गेंहूँ की बाली डोली

बूढे पीपल को भी अपना आया याद जमाना
ले सारंगी उसने भी छेडा मधुर तराना
जब खूब जमी थी टोली
गेंहूँ की बाली डोली

गज़ब कहर बरपा है महुए के मद का भाई
आज चांदनी बलखाई बौराई थी तरुणाई
खुशियों की भर गई झोली
गेंहूँ की बाली डोली

आपका 
शिल्पकार,

भंग का रंग........जोगी जी.... जरा....बच के.....!!!

होली का माहौल बन रहा है. रंग-अबीर-गुलाल और गारी-ठिठोली भी चलेगी जम कर भंग भी घुटेगी और ठंडाई के साथ छनेगी-चढ़ेगी. ऐसे हालत में कभी कभी लोग अपने घर का ही रास्ता भूल जाते हैं या बुरा ना मानो होली है कह के थोड़ी "मौज लेने" के चक्कर में रहते हैं. अगर कहीं फँस गए तो "बुरा ना मानो" के अमोघ मन्त्र का प्रयोग करके बच जायेंगे. अगर कोई बुरा मान गया तो फिर...............जोगी.....रा.......फँस गया...............

जब भंग सर चढ़ जाये, होते उल्टे काम
श्याम लाल के घर में, घुसे होलिया राम
घुसे होलिया राम, जमके लाठियां खाई
सर भी फुट गया, और टांगे भी तुडवाई
कहे "ललित" सुनो, तब नानी याद आये 
कंधों पे पंहुचे घर,जब भंग सर चढ़ जाये

आपका
शिल्पकार

ब्लाग जगत है तैयार-बह रही फ़ागुनी बयार (बिरहा फ़ाग)

बसंत ऋतू आ गई है, वातावरण में रौनक छा गई है-आभासी ब्लाग जगत भी इससे अछूता नहीं है. कहीं ढोल-नंगाड़े बज रहे हैं. कही आचारज जी काला मोबिल आईल लेकर तैयार हैं पोतने को. गिरिजेश भाई ब्लागर की अम्मा से गोइठा-गोइठी सकेल रहे हैं. बस यूँ मानिये की फागुन का स्वागत जोर शोर से हो रहा है. हम भी तैयार हैं रंग-गुलाल और अबीर के साथ. खूब खेलेंगे होली. बनारसी भंग का रंग भी चढ़ेगा और सर चढ़ कर बोलेगा. मौसम मतवाला है ऐसे में विरह से व्याकुल एक नायिका क्या कह रही है सुने और पसंद आये तो आशीर्वाद अवश्य दे.........

कैसी कीनी प्रीत बलमवा
कैसी कीनी प्रीत
नैनन की निंदिया, मन को चैना
सगरो ही हर लीना सजनवा 
कैसी कीनी प्रीत बलमवा 

जूही खिली चम्पा खिली
रात रानी भी अलबेली 
कासौं कहूँ मैं मन की बतिया
अगन लगाये देह पवनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा

मैना बोले सुवा बोले
कोयल मन को भेद ही खोले
बिरहा कटे ना मोरी रतिया 
आयो है रे मस्त फगुनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा

फागुन आयो रंग भी लायो
कामदेव ने काम जगायो 
देखत ही बौराई अमिया
गाऊँ रे मैं राग कहरवा 
कैसी कीनी प्रीत बलमवा

आनो है तो आ ही जाओ 
प्रीत भरी गगरी छलकाओ 
भीजेगी जब मोरी अंगिया
और भी होगी प्रीत जवनवा 
कैसी कीनी प्रीत बलमवा 

आपका 
शिल्पकार

एक प्रार्थना है !!!!!(ललित शर्मा)

हम मानते हैं कि ईश्वर नाम की कोई अदृश्य शक्ति है जो इस संसार,चराचर जगत को चला रही है नियंत्रित कर रही है. पूरा ब्रह्माण्ड उसी के अधीन है. हम मानते हैं कि संसार की सत्ता के चलाने वाले वही हैं. हम सुखों और दुखों दोनों में उनको ही याद करते हैं. यह प्रार्थना मैंने बहुत पहले लिखी थी, आज आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ. कभी कभी मैं भी गुनगुना लेता हूँ. आप भी गुनगुनाइए तथा पसंद आये तो आशीष दीजिये. अगर कोई गा दे तो सोने में सुहागा समझुंगा।

प्रभु जी मन में अमन कर दो 
मेरे जीवन  में  लगन  भर  दो

राह   ऐसी   दिखाओ  प्रभु,  दुखियों  की  सेवा  हो
निर्बल को बल मिल जाये तेरे  प्रेम  की  मेवा  हो 
हम रहें समीप तुम्हारे,तुम  पास  गगन  कर  दो 


प्रभु जी मन में अमन कर दो 
मेरे जीवन  में  लगन  भर  दो

निर्धन  को  धन मिल जाये, योगी को बन मिल जाये
इस धरती का कर्ज उतारें,हमें ऐसा जनम मिल जाये
जल   जाएँ   सभी   दुर्गुण,  सांसों  में  अगन  भर  दो 


प्रभु जी मन में अमन कर दो 
मेरे जीवन  में  लगन  भर  दो

प्रेम हिरदय में भर जाये,तुम सबका जीवन हरसाओ
बाधाएं दूर हो  सबकी, तुम  ऐसी   करुणा   बरसाओ
जीवन  हो  सरल  सबका, काँटों   को  सुमन   कर  दो

प्रभु जी मन में अमन कर दो 
मेरे जीवन  में  लगन  भर  दो

आपका 
शिल्पकार


हमने लगाना चाहा मुहब्बत का शजर!!

हमने लगाना चाहा मुहब्बत का शजर
मौसम मे किसने घोला है  बहुत जहर
मामला संगीन हुआ वो लाए हैं खंजर
पता नही कब दिखाए लहुलुहान मंजर


बहुत ख़ामोशी होती है तूफान के पहले
लावा पिघलता ही है फौलाद के पहले 
छल करने वालों ने क्या सोचा है कभी 
अंगारे सुलगते हैं कहीं, आग के पहले 


देखो कोई वार पर तुरंत प्रहार करता है
कोई उचित समय का इंतजार करता है
जो खड़ा है साक्षी बनकर रणक्षेत्र  में
इतिहास उसका भी सत्कार करता है

आपका 
शिल्पकार    

एक कविता -अपनी-अपनी गति की ओर "ललित शर्मा"

एक सूखी टहनी पर
कुछ बुँदे स्वाति मेह की
अनायास ही टपक गई
उसने उठ कर अंगडाई ली
 बंधन चरमरा उठे 
जोड़ के टांके चटक गए
जनम रहा था नया वृक्ष
मै आनंदित था कि
अपनी ही शाख को
धरती के सीने में जड़ें रोपकर
पुष्पित पल्लवित होते देखूंगा
एक सिरहन सी रगों में दौड़कर
रोंगटे खड़े कर देती
जरा को यौवन की अनुभूति
कसक जाती
खीसें निपोरता हुआ यौवन
जर्जर बुढापे को देखता है
बुढापा यौवन का भविष्य है
यौवन बुढापे का इतिहास है
दोनों एक दुसरे के विपरीत
फ़िर भी सामंजस्य है
दोनों गुजर जाते हैं
अपनी-अपनी गति की ओर
काल को रौंदते हुए

आपका 
शिल्पकार

 

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