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गुगल बाबा

इंडी ब्लागर

 

यही दुनिया और संसार है-अलविदा 2009

नास्तिक हो या आस्तिक सभी उस परम सत्ता को मानते हैं. अस्ति और नास्ति, है या नहीं है. नास्तिक कहता है नहीं है और वह इस पर अटल है. मरने मरने पर उतारू है. आस्तिक कहता है वह है और वह भी अपने कथन पर अटल है और मरने मारने पर उतारू है. नास्तिक नहीं है पर अगाध विश्वास करता है. नास्तिक "नहीं है" को मान रहा है. आस्तिक "वह है" को मान रहा है. दोनों अटल हैं और दोनों मान रहे हैं. यही दुनिया और संसार है. अपने अपने तरीके से परम सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं. मैं भी स्वीकार करता हूँ वह परम सत्ता हमारे साथ किसी ना किसी रूप में विद्यमान है. "वह है" और "नहीं है' के रूप में. आज मैं एक भजन सरीखा आत्म चिंतन का गीत आपके लिए लाया हूँ. आओ इस २००९ के अंतिम दिन हम उस प्रभु का स्मरण किसी ना किसी रूप में कर लें. और उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर लें. यही मेरी अभिलाषा है.

भेजा  है  क्यों भगवन तुने अपने इस संसार में
हाथ जोड़ चितन करता हूँ, खड़ा हुआ दरबार में


लक्ष्य कहाँ है?मेरा भगवन अब तक ढूंढ़ ना पाया हूँ
मैं  कौन हूँ?  बड़ा  प्रश्न  है,  पास  तेरे  मैं  आया  हूँ 
तृष्णा के   वन   में   भटका,  डूबा  रहा  श्रृंगार  में 
हाथ  जोड़  चितन  करता  हूँ,  खड़ा हुआ दरबार में


अक्षर  ब्रह्म  तो  तुने  दिया,  पर  रचना  ना कर पाया
साज श्रृंगार तो सब किया, पर सजना ना बन पाया
दूर  करो दुर्बुद्धि  सब  तुम,  सदगुण  भरो  विचार में 
हाथ  जोड़  चितन  करता  हूँ,  खड़ा  हुआ  दरबार  में


चेतन  मन  तो  नहीं हुआ है, चारों ओर मोह माया है
मनुज-मनुज  में भेद  हुआ है, अंधकार सब छाया है.
दूर  करो  कलुष  जीवन  के,  लगे  मन  सहकार  में 
हाथ जोड़  चितन  करता  हूँ,  खड़ा  हुआ  दरबार  में


होवे प्रीत सभी प्राणी में, मन में करुणा भर दो तुम
भटका  हुआ राही  हूँ मै, सच की राह दिखा दो तुम 
प्रचंड  प्रकाश  का उदय  करो,  अंतर के अंधकार में
हाथ  जोड़  चितन करता  हूँ,  खड़ा  हुआ  दरबार में


भेजा  है  क्यों  भगवन  तुने  अपने  इस  संसार में
हाथ जोड़ चितन करता  हूँ,  खड़ा  हुआ  दरबार  में


सभी को नूतन वर्ष 2010 की अशेष शुभकामनायें 


आपका 
शिल्पकार

मैं चाहने लगी हूँ उस चाँद को!!!


मै
एक छोटी सी
लहर हूँ
समन्दर की
मैं चाहने लगी हूँ
उस चाँद को
उसका आकर्षण
मुझे प्रेरित करता है
आकर्षित करता है
उसका सलोना बांकपन
मुझे मोह लेता है
मै डूबना चाहती हूँ
आनंद में
अनुभूति करना चाहती हूँ
प्रणय की पराकाष्ठा की
मै भी
अस्तितत्व बनाना चाहती हूँ
उन उतुंग पहाडों सा
जो कभी लहरें थे
मेरी तरह
मिलन के आनंद ने
स्थिर कर दिया
उन्हें इस संयोग ने
योगी बना दिया
एक स्पर्श ने
वुजूद दे दिया
योगी बना दिया

आपका
शिल्पकार 

(फोटो गूगल से साभार)

लोकशाही बीमार पड़ी जनरल वार्ड में!!!

सरकार की योजनायें पहले फाईलों में चलती थी अब कार्डों में चल रही है, एक आदमी को जीना है तो पता नहीं कितने कार्ड संभाल कर रखे पड़ते हैं, जिनमे सिर्फ आंकड़े ही भरे जा रहे हैं और उससे ज्यादा कुछ नहीं हो रहा है. आजादी के ६३ सालों के बाद भी लोग भुखमरी से मर रहे हैं. इन कार्डों के एक बानगी देखिये.  


लोकशाही बीमार पड़ी जनरल वार्ड में,
गरीबों की सांसे दर्ज हैं राशन कार्ड में।

सांसें  भी  गिनकर  उन्हें  ही मिलेंगी,
जिनका नाम  दर्ज है  वोटर  कार्ड में।

किसान खुदकुशी कर रहे हैं भुखमरी से,
जीवन उनका  दर्ज  है किसान कार्ड में ।

अपने हक की मांग जब  करो  सरकार से,
पहले नाम दर्ज करवाओ मेमोरी कार्ड में । 

बीमार  लोकशाही  का  इलाज कौन करे,
सुना  है  डाक्टर  व्यस्त  है पेन कार्ड में। 

आपका
शिल्पकार

हमदर्द समझ उनको जख्म दिखाए"ललित"

कल रात को ताऊ की पहेली में समीर भाई ने मुशायरा छेड़ दिया और शेर, दोहे, त्रिवेणी, मुक्तक जग कर उठ खड़े हुए जो कुछ मन में लहर उठी उसे हम भी  गरम गरम परोसते गए, बड़ा आनंद आ रहा था. अब एक शेर तात्कालिक रूप से बना उसे लेकर एक गजल पूरी करने बैठ गए, चलो अब सुर चल रहा है तो उसे आगे बढाया जाये. लेकिन जब शुरू हुए तो एक-एक कड़ी समस्या बनकर फँस गई, रात के १२ बज चुके थे और हम इन शेरों से जूझ रहे थे. आखिर कुछ बन ही गया. लेकिन संतुष्टि नहीं हुयी, अब जैसा भी बन पड़ा उसे प्रस्तुत कर रहा हूँ अगर कहीं त्रुटी हो तो आप सुधार दे, महती कृपा होगी    


हौले   हौले   दिल   को   हम  मनाते  रहे
गुलदस्तों   में   नये   फूल   सजाते   रहे

सोच  कर  अभी  वो  आने वाले  हैं इधर
सारी रात बुखारी में लकड़ियाँ जलाते रहे

सजा  रखी हैं  हमने  सेज सूखे  फूलों से
जिन्हें  सालों  से  ज़माने  से  छिपाते रहे

उनकी मासूमियत के क्या कहने हैं यारों
आते  ही  शिकवों  के  खंजर चलाते रहे

हमदर्द समझ उनको जख्म दिखाए"ललित"
वो  कातिल   अदा  के साथ नमक लगाते रहे

आपका
शिल्पकार

काहे नेह लगाय!!!

मित्रों शिल्पकार दो दिनों तक कुछ लिख नहीं पाया क्योंकि गरमा गरम ही प्रस्तुत करने की आदत पड़ गई है. तुरंत लिखो और छाप दो. इन दिनों में मैंने टेम्पलेट बदला और इस पर अभी और भी काम बाकी है. पुराने टेम्पलेट के विषय में हमारे कई मित्रों ने शिकायत दर्ज कराई थी. यह ठीक से खुलता नहीं है  इससे लिखा हुआ दीखता नहीं है. इसे ही ध्यान में रख कर टेम्पलेट बदला गया है. अब कैसा है? कृपया अवगत कराएँ. इस अवसर पर एक नया "काया गीत" प्रस्तुत है. ब्लॉग का चोला तो बदल गया है. यह टेम्पलेट ( माटी का चोला) भी बदलना पड़ेगा . इसे बदलना उस परमेश्वर के हाथ है. इसलिए इसकी तैयारी भी आवश्यक ही हो जाती है.पता नहीं कब बुलावा आये, इस लिए चलने की तैयारी में यह गीत प्रस्तुत है. आपका आशीर्वाद चाहूँगा.  


हंसा जग है एक सराय
एक पल का ठहराव यहाँ पर काहे नेह लगाय

कोई  चलने की जल्दी में है कोई खड़ा राहों में
कोई  झांक रहा  झरोखे  से कोई पड़ा बाहों में
कोई  बतियाए  बालम  से  कोई  नैन  चुराय
हंसा जग है एक सराय
एक  पल  का ठहराव यहाँ पर काहे नेह लगाय

कोई  नाचे रोये गाये कोई सारंगी तान सुनाय
कहीं  मरघट  कहीं  जगमग  कोई धुनी  रमाय
खुब  लगा  मेला  जग  का देखे आँख न समाय
हंसा जग है एक सराय
एक पल का ठहराव यहाँ पर काहे नेह लगाय


तभी  एक  पल  की आँधी  ने कैसा रचा है खेला
सबका सब ही उजड़  गया बचा न एक भी धेला
दे दे किराया अपना प्राणी, काहे को ॠण चढ़ाय
हंसा जग है एक सराय
एक पल का ठहराव यहाँ पर काहे नेह लगाय


आपका
शिल्पकार

अरि दल बल थर्रा उठता था!!

भारत की वीरांगनाओं के पुरुषोचित कार्यों से पूरा इतिहास भरा पड़ा है. वक्त आने पर उन्होंने तलवारें भी उठाई और बड़ी बड़ी राज सत्ताओं को चुनौती दी, मुसीबतों का डट कर सामना किया उनसे लोहा लिया. कवि प्रकाश वीर "व्याकुल" वर्त्तमान समय में आधुनिकता की आंधी में बह रही हमारी संस्कृति की दुर्दशा को देखेते हुए अपनी चिंता व्यक्त करते हैं.

अरि दल बल थर्रा उठता था सुनकर जिनकी हुंकारों को
योद्धा रण छोड़ भाग जाते थे लख जिनकी तलवारों  को
वो  करना  सीखी  सहन  नही  द्रोही  के  अत्याचारों  को 
पतिव्रता धर्म पर अटल रही हंस कर चूमा  अंगारों  को 
वो  भी  श्रृंगार  बनाती  थी  पर कमर  कटारी कसी हुयी
ईश्वर  की  पावन भक्ति थी जिनकी रग-रग में बसी हुयी
उनकी  संताने  अरे  आज  कितनी फैशन में फंसी हुयी
अथवा  विलासिता  के कीचड़ में बुरी तरह से धंसी हुयी 
वो क्या से क्या हो गई आज जब उनकी ओर लखाता हूँ
मैं तब व्याकुल हो जाता हूँ.

प्रस्तुतकर्ता 
शिल्पकार


मैं तब व्याकुल हो जाता हूँ!!!

कवि प्रकाशवीर "व्याकुल" जी अपनी व्याकुलताओं का कारण बताते हुए क्या कहते हैं, ये मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.

दुर्भाग्य  देश  का उस दिन था बैठी जहाँ सभा सारी.
बैठे   थे  अंधे  धृतराष्ट्र   बैठे   थे  भीष्म   ब्रम्हचारी 
बैठे     द्रोणाचार्य       गुरु    बैठे    कौरव   नर-नारी 
और   सिंहासन  पर बैठा था वो दुर्योधन अत्याचारी 
बैठे थे कृष्ण भगवान वहीं प्रस्ताव संधि का सुना दिया 
मांगे  थे  केवल  पॉँच  गांव  पांडव  को इतना दबा दिया
हर तरह नीच को समझाया परिणाम युद्ध का जता दिया
उसने   सुई  की   नोक  बराबर  भी भूमि को मना किया 
इन  इतिहास  के  पन्नों  की मैं जब-जब खोज लगाता हूँ
मैं तब व्याकुल हो जाता हूँ.

एक  ओर  महात्मा राम दूसरी ओर भरत पंडित ज्ञानी
उनके  चरण  में  बनी  हुयी  थी  गेंद  राष्ट्र की राजधानी 
बिछड़ तात गए वन को भरत बिगड़ गई बात जब जानी
हो गया अधीर नयनों से नीर बहता कहता  था  ये  वाणी
जब तक मिलें नहीं राम नहीं आराम मुझे मै जाऊं वन को
सारे   कष्ट   हो   जाएँ  नष्ट  जब  पाउँगा  जीवन धन   को
चरणों में भ्रात के लिपट गया अर्पित करके निज जीवन को
ले  चरण  पादुका  फिर और नहीं छुआ तलक सिंहासन को
वो  प्यार  भ्रात  का  कहाँ  गया  जब  यह जानना चाहता हूँ
मै तब व्याकुल हो जाता हूँ.


प्रस्तुतकर्ता
शिल्पकार

 

कैसी कीनी प्रीत बलमवा ?

कई वर्षों पहले ये एक प्रेम आमंत्रण लिखा था. आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशीर्वाद चाहूँगा.

कैसी कीनी प्रीत बलमवा
कैसी कीनी प्रीत
नैनन की निंदिया, मन को चैना
सगरो ही हर लीना सजनवा 
कैसी कीनी प्रीत बलमवा 


जूही खिली चम्पा खिली
रात रानी भी अलबेली 
कासौं कहूँ मैं मन की बतिया
अगन लगाये देह पवनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा


मैना बोले सुवा बोले
कोयल मन को भेद ही खोले
बिरहा कटे ना मोरी रतिया 
आयो है रे मस्त फगुनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा


फागुन आयो रंग भी लायो
कामदेव ने काम जगायो 
देखत ही बौराई अमिया
गाऊँ रे मैं राग कहरवा 
कैसी कीनी प्रीत बलमवा


आनो है तो आ ही जाओ 
प्रीत भरी गगरी छलकाओ 
भीजेगी जब मोरी अंगिया
और भी होगी प्रीत जवनवा 
कैसी कीनी प्रीत बलमवा 

आपका 
शिल्पकार

पनघट मैं जाऊं कैसे?



पनघट मैं जाऊं कैसे, छेड़े मोहे कान्हा 
पानी      नहीं    है,    जरुरी   है   लाना

बहुत   हुआ  मुस्किल, घरों  से  निकलना 
पानी  भरी  गगरी को,सर पे रख के चलना
फोडे  ना   गगरी,   बचाना    ओ    बचाना 

पनघट मैं जाऊं कैसे,छेड़े मोहे कान्हा 
पानी      नहीं    है,    जरुरी    है   लाना

गगरी    तो   फोडी   कलाई   भी  ना  छोड़ी
खूब   जोर  से  खींची  और  कसके  मरोड़ी 
छोडो  जी  कलाई,  यूँ सताना  ना   सताना

पनघट मैं जाऊं कैसे,छेड़े मोहे कान्हा 
पानी      नहीं     है,   जरुरी   है   लाना 

मुंह    नहीं    खोले    बोले    उसके    नयना 
ऐसी   मधुर   छवि  है  खोये  मन का चयना
कान्हा   तू   मुरली    बजाना   ओ   बजाना

पनघट मैं जाऊं कैसे,छेड़े मोहे कान्हा 
पानी      नहीं    है,   जरुरी   है   लाना 


आपका 
शिल्पकार
फोटो गूगल से साभार




मैं तब व्याकुल हो जाता हूँ.!!

मित्रों आज मैं आपको भारत के प्रसिद्द कवि एवं पूर्व संसद सदस्य कवि प्रकाशवीर "व्याकुल" जी की एक कविता सुनाता हूँ.इन्होने अपने व्याकुल होने का कारण बताते हुए लिखा है.

मैं तब व्याकुल हो जाता हूँ


जब   दीन   गरीव  लाचार कोई फिरता है दाने-दाने को
एक ओर कोई धनवान खड़ा इसके अरमान मिटाने को
इस बेकस  को तडफाने को कुछ खोटी खरी सुनाने को
उत्सुक है दास बनाने को निज धन का रोब ज़माने को
ताने  देकर  धमकाने को  तिरछी   आंख दिखलाने को 
तू   हट  जा  भग  जा  दूर  परे  बेशर्म मांगता खाने को 
मैं  अपने  मन  में  देख-देख   पछताता  हूँ   घबराता हूँ
मैं तब व्याकुल हो जाता हूँ.


फिर आगे कहते हैं 


तुम  ये  न  समझना  कि  मै  केवल  गीत  सुनाता  फिरता हूँ
तुम ये न समझाना कि मैं किसी का मन बहलाता फिरता हूँ 
तुम  ये  न  समझना  कि  मैं  कोई  टके  कमाता   फिरता   हूँ
तुम  ये  न  समझाना  कि  मै  किसी पर रौब जमाते फिरता हूँ
मैं  केवल   एक   विचारों   की   अग्नि   सुलगाता   फिरता   हूँ
मैं   सिर्फ   जहालत   की   दुनिया   में   आग लगाता फिरता हूँ
तुम   भूल  गए   अपनी  गाथा  मैं तुम्हे याद दिलाता फिरता हूँ
तुम   जाग  उठो  सोने   वालों  मैं   तुम्हे    जगाता   फिरता   हूँ
पर   तुम   करवट  तक  नही  बदलते  कब  से तुम्हे जगाता हूँ
मैं तब व्याकुल हो जाता हूँ.

आपका
शिल्पकार

लोग पढ़ लेते हैं दिल का हाल आँखों से!

यह गजल २४ जनवरी १९८५ को लिखी गई थी.आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ.

मेरे  प्यार  को तुम  ज़माने से छिपा कर रखना
इत्र की खुशबु की तरह सांसों में बसा कर रखना 


कहते हैं  लोग पढ़ लेते हैं दिल का हाल आँखों से
हया  का   परदा  इन आँखों पर गिरा कर रखना


इस  ज़माने  ने क्या  दिया  है  शिवा  रुसवाई के
इसकी  नज़रों   से  हर  बात  छिपा  कर  रखना


चलते   हुए   तुम्हारे  कदम   डगमगा  सकते हैं 
कदमो   को   मंजिल   की   आस  बंधाये  रखना

रो  रो  के  आज  जो  सुन रहे हैं हँसेंगे कल यही 
दिल  के  हर  दर्द  को  होठों  से  दबा  कर रखना


झुलस ना जाये कहीं प्यार का ये सुमन"ललित"
तेज  नफ़रत की आंधियों से इसे बचाकर रखना

आपका
शिल्पकार

शाम से सोचता रहा माज़रा क्या हैं?


देख  कुछ गुलाब लाया हूँ  तेरे लिए 
तोहफे  बेहिसाब लाया  हूँ  तेरे लिए
चश्मेबद्दूर नज़र ना लगे  तुझे कभी
इसलिए नकाब भी लाया हूँ तेरे लिए


अभी तो आई अभी ही चली गयी 
जिन्दगी कैसे  छलती  चली गयी
घूँघट उठाया जैसे ही दुल्हन  का
बड़ी बेवफा थी बिजली चली  गई



मेरे शहर  में कई इज्ज़त वाले  रहते हैं
लेकिन वो  इज्ज़त  देते  नहीं हैं ,लेते हैं
दो रोटियों का खुशनुमा अहसास देकर 
हमारे  तन  के  कपडे  भी  उतार लेते हैं


शाम    से  सोचता   रहा  माज़रा  क्या हैं
चाँद हैं   अगर तो  निकलता क्यूँ नहीं  हैं 
कब तक रहेगा यूँ ही इंतजार का आलम 
क्या नया चाँद कारखाने में ढलता नहीं हैं


तपती  धुप   में  छाँव  को तरसती हैं जिंदगी
भागते शहर में गांव को तरसती हैं  जिन्दगी 
शहर जला था जब से दंगे की आग में लोगो 
उस बूढे बरगद की छावं को तरसती हैं जिंदगी


आपका
शिल्पकार




तृप्ति तभी ही संभव है.!!!!

तृष्णा
मृग तृष्णा
मरीचिका
अतृप्त आत्मा
अतृप्त चक्षु 
मन चातक
मयंक की ओर
निहार रहा है 
अपलक
दुनिया के प्रपंच
बाधाएं जीवन की
खड़ी हैं निरंतर 
सामने 
अवरोधक बनकर 
जिन्हें पार करना है
एक कुशल धावक की तरह
पहुंचना है विजय रेखा तक 
तृप्ति
तभी ही संभव है.


आपका
शिल्पकार

जीवन एक रहस्य है!!!

जीवन
एक रहस्य है
एक पहेली है
जिसे बूझ पाना 
असंभव नहीं 
कुछ कठिन है
आवश्यकता है
दृढ निश्चय की
अवरोधों को 
दूर करने की 
क्षमता की
इस दुनिया में 
लोग आते हैं
चले जाते हैं
छोड़ जाते हैं पीछे
कुछ यादें
चाहे वे स्याह हों 
या उजली हों
ये दुनिया तो
भुला देती है बड़ी जल्दी
क्षणिक आवेश
कर देता है मैली चादर
गर्क कर देता है
सम्पूर्ण जीवन

आपका 
शिल्पकार

निज अंगुष्ठ संभालिये ये ना चोरी होय!!!!

अंगूठा हमारे शरीर का महत्व पूर्ण अंग है. जो पहले दिखाने और अब लगाने के काम आ रहा है. इसकी करामत पता नहीं कब से कितनों को मालामाल कर रही है. सोचिये अगर अंगूठा ना हो तो देश का क्या हाल होगा? देश का सारा विकास ही अंगूठे पर टिका हुआ है. सारी योजनायें अंगूठे के दम पर चल रही हैं. पुलिस से लेकर बैंक और अदालतों तक अंगूठे की महिमा ही गुणगान होता है. इसीलिए मैंने आज अंगूठे पर ही एक कुंडली जैसी कविता लिख डाली जिसे पेश कर रहा हूँ.

एक     निरंजन    देव   है,   अंगुष्ठ   ही  भरतार
अगर   ये  ना   होवता,   क्या   करती   सरकार
क्या करती सरकार, देख विकास कैसे करवाती 
लाखों के मास्टर रोल में, अंगूठा कैसे लगवाती 
कह शिल्पकार कवि, निस दिन अंगुष्ठ को ही सेव
ये   सबसे    बड़ा   संसार  में,  एक   निरंजन   देव


चलते - चलते


अंगुष्ठ को ही बिचारिये, सदा  राखिये ध्यान 
इसके खोये से खो जाये, मानुष की पहचान 


निज   अंगुष्ठ  संभालिये,  ये  ना  चोरी होय
अंगुष्ठ बिना मानुषा, परिचय निज का खोय 


आपका
शिल्पकार

यहाँ भी पढ़िए "सुभीता खोली के नवा चिंतन"

सौ में से नब्बे बेईमान- फिर भी हम महान!!!

 
मैं टहल रहा था 

एक शाम स्टेशन पर 

आ रहे थे 
मेरे पीछ-पीछे /कुछ कुत्ते
वे बतिया रहे थे
लेकर आदमी का नाम
एक दुसरे को लतिया रहे थे
पहला मोती/दूसरा कालू था
पहला बोदा/दूसरा चालू था
तभी सड़क पर आवाज आई
अबे कुत्ते साले
मोती ने मूड कर देखा 
एक आदमी/किसी आदमी को 
इन उपाधियों से अलंकृत कर रहा था
मोती बोला-यार कालू 
लगता है/आदमी इमानदार और
स्वामिभक्त हो गया है
वो देख!वो किसे 
कुत्ता कह रहा है
कालू बोला 
क्या जमाना आ गया है
हमारा तो जीना हराम हो गया है
अरे!जिस आदमी को भी देखो
अब वही कुत्ता हो गया है
लगता है/इनका स्टैण्डर्ड बढ़ गया है
या फिर हमारा घट गया है
पहले आदमी खाता था कसमे 
हमारी स्वामी भक्ति कि
आज हमारे नाम की 
गाली क्यों खा रहा है 
आदमी ही आदमी को 
कुत्ता बतला रहा है
मोती बोला/सुन-सुन 
ये आदमी का बहुत बड़ा मंत्र है
ये इनका हमारे कुत्ता समाज को
सीधा-सीधा बिगाड़ने का षडयंत्र है
क्योंकि इन्होने अपने 
समाज को तो भ्रष्ट लिया है
अब हमारे समाज को भी 
भ्रष्ट करने आ रहे हैं,
इसलिए आदमी-आदमी को
कुत्ता-कुत्ता कहके चिल्ला रहे हैं 
कालू बोला-क्या आदमी ने
झूठ,प्रपंच, गद्दारी, चोरी,दहेज़,हत्या
खून, बलात्कार, डकैती,दुनियादारी 
से मुंह मोड़ लिया है
फिर कैसे?फिर कैसे?
हमारे से नाता जोड़ लिया है
हम भी कुत्ते हैं आखिर 
हमारा भी कोई ईमान है
ऐसा नही है कि सौ में से नब्बे बेईमान 
फिर भी हम महान है
हमारे समाज में 
गद्दार का  कोई स्थान नही है
रिश्वतखोरी,भ्रष्टाचारी का
कोई सम्मान नही है
अरे! जिसको भी देखो 
काठ का घडा हो गया है 
क्या!आदमी भी हमारे से बड़ा हो गया है?
अरे!क्या!आदमी भी हमारे से बड़ा हो गया है?
कालू बोला-यार तू तो गजब के बोल-बोल लेता है
क्यूँ खामखा सबकी पोल खोल लेता देता है
तू तो बड़ा खोता हो गया है
लगता है साले तू भी नेता हो गया है,
मोती बोला-मुझे क्यों गाली देता है नेता बोलकर
आज मैंने अपना दर्द सुना दिया  है दिल खोलकर 
कुत्तों की बातें मुझ तक भी पहुच रही थी
आज मुझे अपने आदमी होने पर शरम आ रही थी
मै सोच रहा था/आज का आदमी कहाँ जा रहा है?
२२ वीं सदी के जेट युग में /या 
नैतिकता के पतन के दल-दल में 
जहाँ उसे कुत्ता-कहने पर 
कुत्तों को एतराज है 
क्या अब भी हमारे पास 
थोडी बहुत शरम -हया-लाज है
एक कुत्ते ने,दुसरे की लाश खायी 
ये तो देखा था 
आज का आदमी जिन्दा आदमी को खा रहा है
फिर भी अपने आपने आदमी होने का ढोल बजा रहा है
आज जिसको भी देखो उसका मुंह 
अपनों के खून से सना है
मैं सोच रहा था 
हाँ! मै सोच रहा था
क्या यही आदमी/क्या यही आदमी 
आने वाली सदी के लिए बना है?
आने वाली सदी के लिए बना है?
आपका 
शिल्पकार


देख शीश शर्म से झुक जायगा!!!!

देख शीश शर्म से झुक जायेगा
नैतिकता के पतन के खुले हुए द्वारों को देखो
महामुनियों की धरा पर अत्याचारों को देखो
नित्य अबलाओं पर हो रहे व्यभिचारों को देखो
देश धर्म पर टंगी हुयी तुम तलवारों को देखो


देख शीश शर्म से झुक जायेगा  
नीति मार्ग पर मायावी तम का घेरा है देखो
राज गद्दी पर चमचों-चापलूसों का डेरा है देखो
चोरों पर चौकीदारी का बंधा सेहरा है देखो
अंधेर नगरी में चौपट राजा का बसेरा है देखो


देख शीश शर्म से झुक जायेगा
चौराहे पर होता है द्रौपती का चीरहरण देखो
रक्षक के हाथों ही होता है आज मरण देखो
देश द्रोहियों को दुश्मनों देशों की शरण देखो
राजनीति व अपराध का घृणित समीकरण देखो   
देख शीश शर्म से झुक जायगा


आपका
शिल्पकार कविता

एक शुन्य आ गया जीवन में!!!

घनघोर
तम में
दीप जल उठे
परिंदे चहक उठे
फिर से चमन में
बहारें एक बार
फिर से लौटी हैं
जब से बहारें आई
अपने साथ
इन्द्रधनुषी 
रंगीनियाँ भी लाइ
रातों को 
मदहोश किया
कुछ देर वक्त को रोका
एक शुन्य आ गया जीवन में
दीप बुझ चुके थे
बहारें चली गयी थी
चमन के दिल चूर हुआ था
इस कठिन वक्त में 
मैंने बहुत संघर्ष किया है
बुझे दीपों में 
अपना खून जलाया
चमन को आंसुओं से सींचा
मेरी दुनिया अँधेरे में थी
उसे उजाले में खींचा 
जीवन में एक शुन्य आ गया 
शुन्य,
शुन्य में कितना अंतर

आपका 
शिल्पकार

अपने दिल की धडकनों से तेरा नाम मिटा ना पाया!!!

अपने दिल की धडकनों से
तेरा  नाम  मिटा ना पाया
ख़त  पढ़  कर  रो दिया मै
जब भी तेरा ख्याल  आया


मैं    जीऊँगी    साथ    तेरे 
मैं      मरूंगी    साथ    तेरे
वो      तेरा      वादा    तुझे
क्यों    याद    नहीं    आया


रो-रो     के      ढूंढ़ता     हूँ
पता       मुकाम       तेरा 
कैसे        पैगाम      भेजूं
लिखा    वो    लौट  आया


मैंने  अब  तलक  जहाँ  में
कोई   ढूंढा    नहीं   सहारा
जाने   क्यों  खोके  तुझको 
अब   खुद  संभल  ना पाया


आपका
शिल्पकार



एक बार आने का समय बता दे.!!!!!!!!!

मुझे मालुम है
चुपके से तुम्हे 
आना है एक दिन
तोडना है तुम्हे 
मेरे मधुर स्वप्न को
भग्न करना है तुम्हे 
मेरे बांधे हुए 
मंसूबों को
मुझे मालूम है 
तुम तो आओगी ही 
पाषाण ह्रदय 
हाँ! तुम हो
पाषाण ह्रदय
निर्दयी, कठोर 
क्या तू ये नहीं कर सकती 
कि तू आती ही नहीं
अगर तुझे आना ही है
तो सिर्फ इतना कर देना 
जो जहाँ से जाने से पहले
मैं कर लूँ अपने मन कि
दुनिया से नाता 
तोड़ने से पहले 
मैं कर लूँ अपने मन की 
मैं आरजू पूरी कर लूँ अपनी
फिर तेरा स्वागत है
एक बार आने का 
समय बता दे.


आपका
शिल्पकार
 


घुटने टेक देने से जीत नहीं होती !

लड़ो,  भिड़ो,   श्रम   करो, संघर्ष करो 
घुटने   टेक   देने   से जीत नहीं होती 


खुरचते  रहो, छिलते  रहो, काटते रहो
समर्पण  करने  से   जीत  नहीं  होती


झोंको,  तोड़ो,  काँटों को उखाड़ फेंको
हाथ  खड़े  करने से  जीत  नहीं  होती


बिना  चैन डटे रहो अंतिम साँस तक
डरके   भागने   से   जीत  नहीं होती


छोड़ते नहीं शिकारी सोई चिड़िया को
हार  मानकर सोने से जीत नहीं होती
 
आपका 
शिल्पकार

मेरी एक कविता भी आज गायब हो गयी है!!!!!!!!!

लिखा था
एक दर्द भरा अफसाना
दी थी मैंने 
एक श्रद्धांजलि
उनको
जिन्हें पता ही नही था
कब काल ने आकर
चुपके से गलबैहियाँ डाल दी
चारों ओर हा हा कार
मचा हुआ था
दौड़ रहे थे लोग 
पागल होकर
रोते बिलखते
अपने परिजनों को 
लाशों में ढूंढ़ते हुए
आसमान में मंडराते हुए 
गिद्ध, चील, कौवे 
भी चीत्कार रहे थे 
मौत का भीषण तांडव
हो रहा था 
जिस देखकर 
यमदूत भी भाग खड़े हुए थे
कैसे गिने इतनी लाशें? 

उस दिन लिखी
मेरी एक कविता भी
आज गायब हो गयी है
शायद मुंह छुपा रही है 
आज सामने आने से 
सरकार की तरह
क्योंकि उसे उत्तर देना है
इन हत्याओं का अपराधी 
एंडरसन कैसे भाग गया?
कैसे भाग गया?


आपका
शिल्पकार


पाया प्रेम का मोती जग में!!!

जग में गुरु समान नही दानी 
गुरु पिता,   गुरु  माता  ज्ञानी ,गुरु  समान नहीं दानी


सदगुरु राह दिखाई तुमने, जगती का कल्याण किया
अनगढ़ पत्थर को तो तुमने, अपने हाथ संवार दिया 
तू ही महान,तू ही ज्ञानी,गुरु समान नहीं दानी जग में 


जब  जब  राह  पथिक भटका, अपने हाथ सहार दिया
मेरी  राहों  के काँटों को तुमने, अपने आप बुहार  दिया
किरपा  का  नही  सानी,  गुरु समान नहीं दानी जग में


जिस पर तेरी करुणा व्यापी, उसको तुमने संवार दिया
प्रेम  प्रकाश  आलोकित  करके, जीने  को  संसार दिया
तेरी महिमा सब ने मानी, गुरु समान नही दानी जग में


मूढ़  मति  का  मर्दन  करके, ज्ञान  के   विटप   लगाये
उर  अन्धकार  मिटा  करके,तुमने प्रज्ञा   दीप   जलाये
तेरी  करुणा सबने मानी, गुरु समान नहीं दानी जग में


"ललित"  श्री  चरणों  में  तेरे,  नित  श्रद्धा सुमन चढ़ाये 
तेरी  करुणा  के  सागर  में,  नित   गहरा   गोता   खाए
पाया प्रेम का मोती जग में,गुरु समान नहीं दानी जग में

आपका 
शिल्पकार

मुझे जरुरत है तुम्हारे स्नेह मंत्र से अभिमंत्रित स्वेटर की !!!!!

मै जान जाता था 
कि अब सर्दी आने वाली है
जब देखता था 
तुम्हारे हाथों में 
सलाई और ऊन की गेंद
दिन भर के
घर के काम से
अवकाश पाते ही 
तुम बुनने लगती थी 
मेरे लिए स्वेटर 
अपने नेह पूरित 
फंदे डाल कर
बुनती थी 
हर फंदे के साथ
अपनी दुवाएं 
जो सिर्फ मेरे लिए और
सिर्फ मेरे लिए ही होती थी
तुम्हारे स्नेह मंत्र से 
अभिमंत्रित स्वेटर को 
मै स्कुल जाता था पहनकर
तो पंख उग आते थे मेरे
ऐसा लगता था 
मैं घर से उड़ कर 
स्कुल पहुँच गया हूँ
यूँ लगता था जैसे
तुम्हारे आंचल में 
सिमटा हुआ हूँ मै 
कछुए जैसे 
हाथ-पैर सिकोड़ कर
सर पर है मेरे तुम्हारा आँचल
उसकी की गर्मी से
जाड़ा कोसों दूर भागता था
किसी विजयी योद्धा की तरह
मै सीना तान कर चलता था
जैसे यह स्वेटर नहीं 
"बुलेट प्रूफ जैकेट" है
दुनिया की बुरी नजर 
और सारी अनहोनियों 
से बचाता था मुझे
माँ तुम ही हो 
दुनिया की प्रथम
"आल फ्रूफ जैकेट"
की अविष्कार कर्ता
सर्दियाँ फिर आ गई हैं 
मुझे जरुरत है
तुम्हारे स्नेह मंत्र से 
अभिमंत्रित स्वेटर की 
तुम कहाँ हो माँ ?
माँsssssssssssss!!!


आपका 
शिल्पकार

साजन के संदेशे अब हमें मिल गए

साजन के संदेशे अब हमें मिल गए
हजारों कंवल मन में अब खिल गये

चल  पड़ेंगे  अब सफ़र में सोच कर 
मन  के  दुवारे हजारों दीप जल गए

ये कैसा मिलन का आनंद है साजन
दुनिया   के  सब  मेले  फीके रह गए

मिलन  की  आस लगी थी दिन रैन 
मिलेंगे  अब  नये चमन में कह गए

साँस  यूँ  आई   बड़ी   जब   जोर  से 
मौत  के  किवाड़  सब  ये   खुल  गये

आपका 
शिल्पकार

याद आ जाये दूध छठी का ऐसा युद्ध रचाऊँगा !!!!!!

जब मातृभूमि पर संकट आता है, जब कोई दुश्मन आँखे दिखाता है, तो बच्चा, बुढा, जवान, स्त्री-पुरुष सभी उसकी रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने को लालायित हो जाते हैं और दुश्मन को करार जवाब देने की उत्कट अभिलाषा उनके मन में उठती है. ऐसा ही एक अवसर "कारगिल" युद्ध के रूप में हमारे सामने आया था. जिसका समस्त देशवाशियों ने कसकर मुकाबला किया और लड़ाई भी जीती. उस समय एक बालक के मन में भी यही  देश भक्ति का जज्बा था वो अपनी माँ से  कहता है.

माँ मै भी लड़ने जाऊंगा
कारगिल के घुसपैठियों को जाकर मार भागूँगा
काँप  उठेंगी  पाकी  फौजें  ऐसी मार लगाऊंगा 
माँ मै भी लड़ने जाऊंगा
भारत माँ की  रक्षा  खातिर  अपना लहू बहाऊंगा
पहन बसंती चोला मै दुश्मन का दिल दहलाऊंगा 
माँ मै भी लड़ने जाऊंगा  
हर-हर  महादेव  का नारा  वहां जोर से लगाऊंगा
करने  सरहदों  की  रक्षा  अपना  शीश  चढाऊंगा 
माँ मै भी लड़ने जाऊंगा 
करके दुश्मनों की छुट्टी वहां तिरंगा लहराऊंगा 
याद  आ  जाये दूध छठी का ऐसा युद्ध रचाऊँगा 
माँ मै भी लड़ने जाऊंगा 


आपका 
शिल्पकार

समा जाना है फिर इसी माटी में

मौसम ही कुछ
ऐसा हुआ है 
वृक्ष पर एक भी पत्ता नहीं
यह मौसम पहले भी आता था
इतना भयानक रूप 
पहले कभी देखा नहीं
कोयल की कूक 
बुलबुल के नगमे 
खो गये हैं कहीं
तेज पवन के झोंकों से
सिर्फ पत्तों के 
खड़कने की आवाज आती है
पत्ते कहते हैं
वृक्ष हमारा साथ छोड़ देता है
उस पर फिर यौवन आएगा
हरियाली का उन्माद छाएगा
वह स्वयं ही जुदा हुआ है
हमसे फिर कहता है 
पत्ते साथ छोड़ देते हैं
लेकिन हम साथ रहे सदा तुम्हारे
पहले भी हमने 
आँधियों का तुफानो का
सामना साथ किया था
लेकिन अबकि बार 
आंधियों में हमारे पांव जम न सके
हम शीशे की तरह
टूट कर बिखर गए
यह तो प्रकृति का खेल है
कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर बिखर जाना है
समा जाना है फिर 
इसी माटी में 
गुम हो जाना है
बिना किसी अस्तित्व के 
बेनाम होकर

आपका
शिल्पकार

कब आओगे??????????

तलाशता हुँ 
तुम्हे नित्य
सड़क पर
आती जाती बसों में
अपने गंतव्य की ओर जा रहे
यात्रियों की भीड़ में
जब कोई बस आती हुई 
दिखाई देती है दूर से
तुम्हे देखने चढ़ जाता हूँ
ऊँचे टीले पर
पहाडी टेकरी पर
फिर एक बार 
सवारियों के बीच 
तुम्हें तलाशता हूँ
कुछ समय बाद 
दूसरी बस आती है
तुम्हे लिए बिना
मैं उसे जाते हुए देखता हूँ
फिर उसके आने की
प्रतीक्षा करता हूँ
जब से तुम गई हो
नित्य यही होता है
बस आती है 
और चली जाती है
मैं इंतजार करता हूँ
हाथ में लिए हुए 
सुखा गुलाब का फूल
जो लाया था उस दिन 
तुम्हारे जन्म दिन पर
तब से आज तक 
फिर नहीं आया 
तुम्हारा जन्म दिवस
मैं तुम्हारे लौट आने की
प्रतीक्षा में खड़ा हूँ 
वहीं पर 
उस टेकरी पर
आती जाती बसों को 
देखते हुए.
रोज की तरह 
जन्म दिन की 
मुबारकबाद देने के लिए 

आपका 
शिल्पकार

 

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